आधुनिक भारत का यौगिक एजेंडा

आधुनिक भारत का यौगिक एजेंडा

छठा अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस ऐसे समय में हैं, जब कोरोना महामारी के कारण हर तरफ अवसाद और मौत का मंजर है। ऐसे में हम उत्सव भले न मना पाएंगे। पर यौगिक जीवन के लिए चिंतन का यही उपयुक्त वक्त है। यह निर्विवाद है कि योग एक व्यवस्थित विज्ञान है, जो बीमारियों से मुक्ति दिलाने में मददगार है। इसी भरोसे रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने और अवसाद से मुक्ति के लिए बड़ी संख्या में लोग योग का सहारा ले रहे है। पर योग का अंतिम लक्ष्य फटाफट योग नहीं है, बल्कि आंतरिक शक्तियों का जागरण है। इसमें शारीर और मन को स्वस्थ रखने के लिए अलग से कुछ नहीं करना पड़ता है। पर यह तभी संभव है जब सम्रग और प्रभावी यौगिक शिक्षण-प्रशिक्षण के लिए शास्त्रसम्मत और विज्ञानसम्मत दृष्टिकोण अपनाया जाएगा। समय की मांग है कि शास्त्रसम्मत यौगिक एजेंडा बने।

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यौगिक एजेंडा अल्पकालिक और दीर्घकालिक दोनों होना चाहिए। दीर्घकालिक यौगिक एजेंडा देश के भावी कर्णधारों को ध्यान में रखकर होना चाहिए। अल्पकालिक एजेंडे के तहत यौगिक शिक्षण-प्रशिक्षण ऐसा होना चाहिए कि बड़े और बुजुर्गों की तात्कालिक समस्याओं का समाधान हो सके। पर किसी भी हालत में गुणवत्ता से समझौता नहीं किया जाना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दो साल पहले इस बात को शिद्दत से महसूस किया था। उन्होंने कहा था – “प्रशिक्षित योग शिक्षकों को तैयार करना हमारी सबसे बड़ी चुनौती है।“ पर अब इस संकल्प को अमल में लाने का वक्त है। हम जानते हैं कि योग हठयोग की कुछ विधियों तक ही सीमित नहीं है। इसका फलक इतना व्यापक है कि मन के पार की बात भी योग का ही विषय है। वैज्ञानिक अनुसंधान जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है, इस मामले में प्राचीन काल के वैज्ञानिक संतों की बातों पर मुहर लगती जा रही है। तभी पश्चिमी देशों के लोग योग के मामले में भारत की ओर आशा भरी नजरों से देख रहे हैं।

ऐसे में हठयोग, राजयोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग, क्रियायोग, भक्तियोग आदि को मिलाकर समन्वित योग की शिक्षा देने हेतु कार्यनीति बनानी होगी। हमें भविष्य के कर्णधारों को ऐसी योग शिक्षा देनी होगी, जिससे उनकी चेतना में छिपी महान शक्ति प्रकट हो सके। योग शास्त्रों में वर्णित यौगिक पद्धतियों की वैज्ञानिकता और उसके लाभों को परिभाषित करते हुए पाठ्यक्रम तैयार कराया जाना चाहिए। पाठ्यक्रम तैयार कराने से लेकर योग शिक्षक तैयार करने तक के कामों में परंपरागत योग के संस्थानों का सहयोग बड़े महत्व का होगा। हम जानते हैं कि योग शिक्षा अंग्रेजी या इतिहास पढ़ने-पढ़ाने जैसा नहीं है। इसके आध्यात्मिक पक्ष भी है। इसलिए योग शिक्षा में नौकरशाही की भूमिका कम से कम होनी चाहिए। यौगिक एजेंडे में यौगिक विधियों के वैज्ञानिक अनुसंधानों पर भी फोकस होना चाहिए।

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भारत के परंपरागत योग का लक्ष्य भी केवल बीमारियों से मुक्ति नहीं रहा। जीवन में पूर्णत्व योग का लक्ष्य रहा है। तभी बच्चों की उम्र सात-आठ साल होते ही योगमय जीवन की शुरूआत करा दी जाती थी। उपनयन संस्कार उसी का हिस्सा होता था। बच्चों को अनिवार्य रूप से सूर्य नमस्कार, नाड़ी शोधन प्राणायाम, भ्रामरी प्राणायाम और गायत्री मंत्र के जप की शिक्षा दी जाती थी। वक्त के थपेड़े ने हमें उस मुकाम पर पहुंचा दिया है कि योगमय जीवन की शुरूआत आठ साल की उम्र से करानी ही होगी। इससे पीनियल ग्रंथि के क्षय होने की प्रक्रिया रूक जाएगी या धीमी पड़ जाएगी। इससे जुड़ी पिट्यूटरी ग्रंथि सुरक्षित लंबे समय तक सुरक्षित रहेगी। इसका लाभ होगा कि बच्चों के मस्तिष्क के कार्य, व्यवहार और ग्रहणशीलता नियंत्रित रहेंगे। इससे बौद्धिक विकास होगा और जीवन में स्पष्टता रहेगी। यौन ग्रंथियां समय से पहले सक्रिय नहीं होंगी।

हमें इस बात पर गौर करना ही होगा कि छोटे-छोटे बच्चे यौन हिंसा और पशुवत व्यवहार क्यों करने लगते हैं? अनुसंधानों से पता चल चुका है कि बच्चे जब लगभग आठ साल के हो जाते हैं तो भौहों के बीच यानी भ्रू-मध्य के ठीक पीछे मस्तिष्क में अवस्थित पीनियल ग्रंथि कमजोर होने लगती है। बुद्धि और अंतर्दृष्टि के मूल स्थान वाली यह ग्रंथि किशोरावस्था में अक्सर विघटित हो जाती है। परिणामस्वरूप उस ग्रंथि के भीतर की पीनियलोसाइट्स कोशिकाओं से मेलाटोनिन हॉरमोन बनना बंद हो जाता है।

इस हॉरमोन का सीधा संबंध यौन परिपक्वता से है। इस पर बड़े-बड़े शोध हुए हैं। देखा गया है कि अनुकंपी (पिंगला) और परानुकंपी (इड़ा) नाड़ी संस्थान के बीच का संतुलन बिगड़ जाता है। नतीजतन, पिट्यूटरी ग्रंथि से हॉरमोन का रिसाव शुरू होकर शरीर के रक्तप्रवाह में मिलने लगता है। इससे बाल मन में उथल-पुथल मच जाता है। समय से पहले अंगों का विकास होने लगता है और यौन हॉरमोन क्रियाशील हो जाता है। कामवासन जागृत हो जाती है। यह काम ऐसे समय में होता है, जब बच्चे मानसिक रूप से इसके लिए तैयार नहीं होते हैं। लिहाजा वे अपने को संभाल नहीं पातें। उसके कुपरिणाम कई रूपो में सामने आने लगते हैं। अनुसंधानों से पता चला है कि प्राचीन काल में बच्चों के लिए जो योगाभ्यास तय किए गए थे। मौजूदा समय के लिहाज से शांभवी मुद्रा को भी उस सूची में जोड़ लेने की जरूरत है। यानी सूर्य नमस्कार, भ्रामरी प्राणायाम, नाड़ी शोधन प्राणायाम, शांभवी मुद्रा और गायत्री मंत्र।

योग की भाषा में पीनियल ग्रंथि वाले स्थान को ही आज्ञा चक्र या तीसरा नेत्र कहा जाता हैं। इसकी सजगता के और भी लाभ हैं। संतों को हजारों साल पहले पता चल गया था कि शरीर में ऊर्जा के सात केंद्र होते हैं - मूलाधार चक्र, स्वाधिष्ठान चक्र, मणिपुर चक्र, अनाहत चक्र, विशुद्धि चक्र, आज्ञा चक्र और सहस्रार चक्र और सभी चक्र शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक विकास के लिहाज से बड़े काम के होते हैं। अब वैज्ञानिक भी इस बात को मान रहे हैं। जापान के वैज्ञानिक डॉ एच मोटायामा ने साबित किया कि खास-खास तरह के योगाभ्यासों से अलग-अलग चक्रों का जागरण होता है, जिनका मानव पर विशेष तरह का प्रभाव होता हैं। वैज्ञानिक संतों की मानें तो योग का असल उद्देश्य इन चक्रों का जागरण ही हैं। इसी से जीवन में पूर्णता आती है।

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जाहिर है कि इन तमाम बातों को ध्यान में रखकर देश का यौगिक एजेंडा तय किया जाना चाहिए। योग शास्त्रों पर आधारित पाठ्य पुस्तकें होंगी और उसके अनुरूप स्तरीय शिक्षक व अनुदेशक सर्वसुलभ होंगे तो हमे विरासत में मिली योग-शक्ति स्वर्णिम भारत के निर्माण में अहम् भूमिका निभाएगी।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व योग विज्ञान विश्लेषक हैं)

 

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